हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में हस्तक्षेप रखने वाली प्रख्यात साहित्यकार ममता कालिया लिटरेरी फेस्ट में हिस्सा लेने गोरखपुर आईं। हिंदी कहानी के परिदृश्य पर उनकी सक्रियता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि 79 वर्ष की उम्र में भी पढ़ने-लिखने की भूख है।
फिलहाल दो पुस्तकें लिख रही हैं और एक और लिखने की तैयारी में हैं। अमर उजाला के सीनियर रिपोर्टर राजन राय ने साहित्य की वर्तमान स्थिति, लेखनी पर ममता कालिया से विस्तार से बातचीत की। पेश हैं अंश-
सवाल : आजकल आप क्या लिख रहीं और भावी योजना क्या है?
जवाब : अमिताभ और रेखा के प्रेम प्रसंग पर लिखने वाली हूं। जब भी रेखा के माथे पर सिंदूर की रेखा देखती हूं, मुझे खटकती है। दो व्यक्तियों का रिश्ता शादी के बाद भी कहीं न कहीं महसूस होता है, तब जबकि दोनों संवाद ही नहीं करते। यह मुझे आंदोलित करती है कि कुछ लिखूं। इसके अलावा एक उपन्यास ‘पापा’ लिख रही हूं। पांच चैप्टर पूरे हो गए हैं। अंदाज-ए-बयां और इलाहाबाद की परंपरा और संस्कृति पर ‘छोड़ आए जो गलियां’ लिख रही हूं।
सवाल : साहित्य के प्रति युवाओं का आकर्षण कम हुआ है, क्या वजह है?
जवाब : रचनात्मक लेखन के प्रति लालसा बढ़ी है। युवा शब्द से जुड़ना चाहता है। हालांकि उसे एक डर स्थायित्व का है। ईमानदारी और धैर्य से काम करें, मुझे नहीं लगता है कि भविष्य सुरक्षित नहीं है।
सवाल : भोजपुरी साहित्य का दायरा संकुचित हो रहा है, आपका नजरिया क्या है?
जवाब : जब भी भोजपुरी का जिक्र होता है तो उसे बोली कहकर उपेक्षित कर दिया जाता है। मेरा मानना है कि भोजपुरी से बड़ा साहित्य कोई नहीं है। भोजपुरी को लेकर संघर्ष करना पड़ेगा। जल्द ही समय आएगा कि भिखारी ठाकुर का भोजपुरी साहित्य जागृत होगा। अगर आपको भोजपुरी की ताकत देखनी है तो मारीशॅस जाइए। वहां भोजपुरी में ही मिलना और संवाद करना होता है।
सवाल : स्त्री विमर्श को लेकर चले आंदोलन में ठहराव आया है क्या?
जवाब : ऐसा नहीं है। कोई भी विमर्श कहानी के माध्यम से ज्यादा सार्थक होता है। राजेंद्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस में स्त्री के देह की मुक्ति जैसे फार्मूले को अपनाया। ऐसे में स्त्री विमर्श कोष्ठक बनकर रह गया। मुझे लगता है कि इसे एक विचार के तौर पर लेना चाहिए।
सवाल : साहित्य पर बाजार का प्रभाव पड़ा है क्या?
जवाब : बाजार का प्रभाव हर क्षेत्र में है। साहित्य इससे अछूता नहीं है लेकिन चंद लेखक अब भी हैं, जो धारा के विपरीत लिख रहे हैं। दरअसल, रचना एकांत मांगती है। अब तो फटाफट का जमाना आ गया है।
सवाल : नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश में बवाल मचा है, साहित्यकार मौन क्यों हैं?
जवाब : अभी हम लोग विश्लेषण कर रहे हैं। अचानक कोई नियम लाकर आप नागरिक होने का सबूत मांगें तो कोई कैसा देगा। इन चीजों का विरोध होना चाहिए। वैसे भी साहित्यकार की भूमिका प्रतिपक्ष में खड़ा करने की है।